मौलाना मेराज अहमद क़मर
भारत एक ऐसा देश रहा है जहां हमेशा विभिन्न धर्मों के बीच प्रेम और स्नेह की अवधारणा रही है। आजादी से पहले भी, भारतीय लोग कमोबेश शांति से रहते थे। लोगों की धार्मिक भावनाओं को जगाने के लिए शायद ही कोई कट्टरपंथी थे।
मुगल सम्राट अकबर ने 1575 में एक अकादमी, इबादत खाना, “पूजा सभा” की स्थापना की, जहाँ सभी प्रमुख धर्मों के प्रतिनिधि धर्मशास्त्र के प्रश्नों पर चर्चा करने के लिए मिल सकते थे। 1582 ई में अकबर द्वारा शुरू की गई धार्मिक मान्यता, दीन-ए इलाही (ईश्वर का धर्म) की एक ऐसी ही प्रणाली थी जिसका विचार इस्लाम और हिंदू धर्म को एक में जोड़ना था। अकबर ने धार्मिक मामलों में गहरी व्यक्तिगत रुचि ली। अकबर ने निष्कर्ष निकाला कि किसी भी एक धर्म ने पूरे सत्य पर कब्जा नहीं किया है और इसके बजाय उन्हें जोड़ा जाना चाहिए। तदनंतर ईसाई धर्म, पारसी धर्म के लोग भी भारत में आए , जिनको भी भारत की पहले से स्थापित संस्कृति में जोड़ने का प्रयास अवश्यंभावी हो गया था; जिसका अर्थ है कि भावना केवल कानून से बंधी नहीं है, बल्कि प्रेम और सद्भाव की भावनाओं से बंधी है जो पहले से ही यहां था। यह इस भावना को दर्शाता है कि हम शुरुआत से ही हमेशा एक साथ रहना चाहते थे। ये तो केवल विदेशी थे जिन्होंने देश पर शासन करने के लिए भारत के लोगों के मन में विभाजन के बीज डाले।
आज भी भारतीय संविधान धार्मिक सद्भाव का समर्थन और प्रोत्साहन करता है। मुसलमानों और सिक्खों व जैन धर्म के मानने वालों द्वारा मंदिरों के निर्माण के अनेक उदाहरण हैं।
रमजान के दौरान हिंदू मुसलमानों के इफ्तार में भाग लेते हैं और उनके साथ इसे पूरी निष्ठा से मनाते हैं। मुसलमान भी अपने दायित्व से पीछे नहीं हैं और वो भी हिंदू त्योहारों को सौहार्दपूर्ण ढंग से मनाते हैं। सिख अपने धर्म के अनुसार बिना किसी भेदभाव के लंगर के दौरान सभी को खाना खिलाते हैं। यह एक राष्ट्र के रूप में हमारे प्यार और ताकत को दर्शाता है। अनेकता में इसी एकता को हमने अपनी पहचान के रूप में स्वीकार किया है। और हम सबका एक ही धर्म है और वो है प्रेम का धर्म।